Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद



ताहिर अली के पिता पुलिस-विभाग के कांस्टेबिल से थानेदारी के पद तक पहुँचे थे। मरते समय कोई जायदाद तक न छोड़ी, यहाँ तक कि उनकी अंतिम क्रिया कर्ज से की गई; लेकिन ताहिर अली के सिर पर दो विधवाओं और उनकी संतान का भार छोड़ गए। उन्होंने तीन शादियाँ की थीं। पहली स्त्री से ताहिर अली थे, दूसरी से माहिर अली और जाहिर अली, और तीसरी से जाबिर अली। ताहिर अली धैर्यशील और विवेकी मनुष्य थे। पिता का देहांत होने पर साल-भर तक तो रोजगार की तलाश में मारे-मारे फिरे। कहीं मवेशीखाने की मुहर्रिरी मिल गई, कहीं किसी दवा बेचनेवाले के एजेेंट हो गए, कहीं चुंगी-घर के मुंशी का पद मिल गया। इधर कुछ दिनों से मिस्टर जॉन सेवक के यहाँ स्थायी रूप से नौकर हो गए थे। उनके आचार-विचार अपने पिता से बिलकुल निराले थे। रोजा-नमाज के पाबंद और नीयत के साफ थे। हराम की कमाई से कोसों भागते थे। उनकी माँ तो मर चुकी थीं; पर दोनों विमाताएँ जीवित थीं। विवाह भी हो चुका था; स्त्री के अतिरिक्त एक लड़का था-साबिर अली, और एक लड़की-नसीमा। इतना बड़ा कुटुम्ब था और 30 रुपये मासिक आय! इस महँगी के समय में, जबकि इससे पँचगुनी आमदनी में सुचारु रूप से निर्वाह नहीं होता, उन्हें बहुत कष्ट झेलने पड़ते थे; पर नीयत खोटी न होती थी। ईश्वर-भीरुता उनके चरित्र का प्रधान गुण थी। घर में पहुँचे, तो माहिर अली पढ़ रहा था, जाहिर और जाबिर मिठाई के लिए रो रहे थे, और साबिर आँगन में उछल-उछलकर बाजरे की रोटियाँ खा रहा था। ताहिर अली तख्त पर बैठे गए और दोनों छोटे भाइयों को गोद में उठाकर चुप कराने लगे। उनकी बड़ी विमाता ने जिनका नाम जैनब था, द्वार पर खड़ी होकर नायकराम और बजरंगी की बातें सुनी थीं। बजरंगी दस ही पाँच कदम चला था कि माहिर अली ने पुकारा-सुनो जी, ओ आदमी! जरा यहाँ आना, तुम्हें अम्माँ बुला रही हैं।

बजरंगी लौट पड़ा, कुछ आस बँधी। आकर फिर बरामदे में खड़ा हो गया। जैनब टाट के परदे की आड़ में खड़ी थीं, पूछा-क्या बात थी जी?
बजरंगी-वही जमीन की बातचीत थी। साहब इसे लेने को कहते हैं। हमारा गुजर-बसर इसी जमीन से होता है! मुंसीजी से कह रहा हूँ, किसी तरह इस झगड़े को मिटा दीजिए। नजर-नियाज देने को भी तैयार हूँ, मुआ मुंसीजी सुनते ही नहीं।
जैनब-सुनेंगे क्यों नहीं, सुनेंगे न तो गरीबों की हाय किस पर पड़ेगी? तुम भी तो गँवार आदमी हो, उनसे क्या कहने गए? ऐसी बातें मरदों से कहने की थोड़ी ही होती हैं। हमसे कहते, हम तय करा देते।
जाबिर की माँ का नाम था रकिया। वह भी आकर खड़ी हो गईं। दोनों महिलाएँ साये की तरह साथ-साथ रहती थीं। दोनों के भाव एक, दिल एक, विचार एक, सौतिन का जलापा नाम को न था। बहनों का-सा प्रेम था। बोली-और क्या, भला ऐसी बातें मरदों से की जाती हैं?
बजरंगी-माताजी, मैं गँवार आदमी, इसका हाल क्या जानूँ। अब आप ही तय करा दीजिए। गरीब आदमी हूँ, बाल-बच्चे जिएँगे।
जैनब-सच-सच कहना, यह मुआमला दब जाए, तो कहाँ तक दोगे?
बजरंगी-बेगम साहब, 50 रुपये तक देने को तैयार हूँ।
जैनब-तुम भी गजब करते हो, 50 रुपये ही में इतना बड़ा काम निकालना चाहते हो?
रकिया-(धीरे से) बहन, कहीं बिदक न जाए।
बजरंगी-क्या करूँ, बेगम साहब, गरीब आदमी हूँ। लड़कों को दूध-दही जो कुछ हुकुम होगा, खिलाता रहूँगा; लेकिन नगद तो इससे ज्यादा मेरा किया न होगा।
रकिया-अच्छा, तो रुपयों का इंतजाम करो। खुदा न चाहा, तो सब तय हो जाएगा।
जैनब-(धीरे से) रकिया, तुम्हारी जल्दबाजी से मैं आजिज हूँ।
बजरंगी-माँजी, यह काम हो गया, तो सारा मुहल्ला आपका जस गायगा।
जैनब-मगर तुम तो 50 रुपये से आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेते। इतने तो साहब ही दे देंगे, फिर गुनाह बेलज्जत क्यों किया जाए।
बजरंगी-माँजी, आपसे बाहर थोड़े ही हूँ। दस-पाँच रुपये और जुटा दूँगा।
बजरंगी-बस, दो दिन की मोहलत मिल जाए। तब तक मुंसीजी से कह दीजिए, साहब से कहें-सुनें।
जैनब-वाह महतो, तुम तो बड़े होशियार निकले। सेंत ही में काम निकालना चाहते हो। पहले रुपये लाओ, फिर तुम्हारा काम न हो, तो हमारा जिम्मा।
बजरंगी दूसरे दिन आने का वादा करके खुश-खुश चला गया, तो जैनब ने रकिया से कहा-तुम बेसब्र हो जाती हो। अभी चमारों से दो पैसे खाल लेने पर तैयार हो गईं। मैं दो आने लेती, और वे खुशी से देते। यही अहीर पूरे सौ गिनकर जाता। बेसब्री से गरजमंद चौकन्ना हो जाता है। समझता है, शायद हमें बेवकूफ बना रही हैं जितनी ही देर लगाओ, जितनी बेरुखी से काम लो, उतना एतबार बढ़ता है।
रकिया-क्या करूँ बहन, मैं डरती हूँ कि कहीं बहुत सख्ती से निशाना खता न कर जाए।
जैनब-वह अहीर रुपये जरूर लाएगा। ताहिर को आज ही से भरना शुरू कर दो। बस, अजाब का खौफ दिलाना चाहिए। उन्हें हत्थे चढ़ाने का यही ढंग है।
रकिया-और कहीं साहब न माने, तो?
जैनब-तो कौन हमारे ऊपर नालिश करने जाता है।
ताहिर अली खाना खाकर लेटे थे कि जैनब ने जाकर कहा-साहब दूसरों की जमीन क्यों लिए लेते हैं? बेचारे रोते फिरते हैं।
ताहिर-मुफ्त थोड़े ही लेना चाहते हैं! उसका माकूल मुआवजा देने पर तैयार हैं।
जैनब-यह तो गरीबों पर जुल्म है।
रकिया-जुल्म ही नहीं है, अजाब है। भैया, तुम साहब से साफ-साफ कह दो, मुझे इस अजाब में न डालिए। खुदा ने मेरे आगे भी बाल-बच्चे दिए हैं, न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े; मैं यह अजाब सिर पर न लूँगा।
जैनब-गँवार तो हैं ही, तुम्हारे ही सिर हो जाएँ। तुम्हें साफ कह देना चाहिए कि मैं मुहल्लेवालों से दुश्मनी मोल न लूँगा, जान-जोखिम की बात है।
रकिया-जान-जोखिम तो है ही, ये गँवार किसी के नहीं होते।
ताहिर-क्या आपने भी कुछ अफवाह सुनी है?
रकिया-हाँ, ये सब चमार आपस में बातें करते जा रहे थे कि साहब ने जमीन ली, तो खून की नदी बह जाएगी। मैंने तो जब से सुना है, होश उड़े जा रहे हैं।
जैनब-होश उड़ने की बात ही है।
ताहिर-मुझे सब नाहक बदनाम कर रहे हैं। मैं लेने में, न देने में। साहब ने उस अंधे से जमीन की निस्बत बातचीत करने का हुक्म दिया था। मैंने हुक्म की तामील की, जो मेरा फर्ज था; लेकिन ये अहमक यही समझ रहे हैं कि मैंने ही साहब को इस जमीन की खरीदारी पर आमादा किया है; हालाँकि खुदा जानता है, मैंने कभी उनसे इसका जिक्र ही नहीं किया।
जैनब-मुझे बदनामी का खौफ तो नहीं है; हाँ, खुदा के कहर से डरती हूँ। बेकसों की आह क्यों सिर पर लो?
ताहिर-मेरे ऊपर क्यों अजाब पड़ने लगा?
जैनब-और किसके ऊपर पड़ेगा बेटा? यहाँ तो तुम्हीं हो, साहब तो नहीं बैठे हैं। वह तो भुस में आग लगाकर दूर से तमाशा देखेंगे, आई-गई तो तुम्हारे सिर जाएगी। इस पर कब्जा तुम्हें करना पड़ेगा। मुकदमे चलेंगे, तो पैरवी तुम्हें करनी पड़ेगी। ना भैया, मैं इस आग में नहीं कूदना चाहती।
रकिया-मेरे मैके में एक कारिंदे ने किसी काश्तकार की जमीन निकाल ली थी। दूसरे ही दिन जवान बेटा उठ गया। किया उसने जमींदार ही के हुक्म से, मगर बला आई उस गरीब के सिर। दौलतवालों पर अजाब भी नहीं पड़ता। उसका वार भी गरीबों पर ही पड़ता है। हमारे बच्चे रोज ही नजर और आसेब की चपेट में आते रहते हैं; पर आज तक कभी नहीं सुना कि किसी अंगरेज के बच्चे को नज़र लगी हो। उन पर बलैयात का असर ही नहीं होता।
यह पते की बात थी। ताहिर अली को भी इसका तुजुर्बा था। उनके घर के सभी बच्चे गंडों और तावीजों से मढ़े हुए थे, उस पर भी आए दिन झाड़-फूँक और राई-नोन की जरूरत पड़ा ही करती थी।
धर्म का मुख्य स्तम्भ भय है। अनिष्ट की शंका को दूर कीजिए, फिर तीर्थ-यात्रा, पूजा-पाठ, स्नान-धयान, रोज़ा-नमाज, किसी का निशान भी न रहेगा। मसजिदें खाली नज़र आएँगी, और मंदिर वीरान!
ताहिर अली को भय ने परास्त कर दिया। स्वामिभक्ति और कर्तव्‍य-पालन का भाव ईश्वरीय कोप का प्रतिकार न कर सका।

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